मां निषाद प्रतिष्ठां -----------काम मोहितंम्। इस श्लोक का दूसरा अर्थ (रामायण से)
Moral mythological and historical stories ke is aank me Maine आपको रामायण महाकाव्य के सबसे प्रसिद्ध श्लोक,जिसने महर्षि बाल्मीकि को, संपूर्ण रामायण को रचने की प्रेरणा दी, उसके दूसरे अर्थ से अवगत कराने जा रहा हूं। श्लोक निम्न वत है:--
" मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगम शाश्वती समा़ं।
यत क्रौंच मिथुनादेकम वधीं काम मोहितम्"।।
यह श्लोक महर्षि वाल्मीकि के मुंह से व्याध के लिए निकला था।
क्रौंच पक्षी के आर्तनाद् से दुखी हो, महर्षि बाल्मीकि के मुख से अनायास ही श्राप के रूप में यह श्लोक निकला था। बाद में उन्होंने संपूर्ण रामायण महाकाव्य,इसी श्लोक की प्रेरणा से लिखी।
दोपहर का समय था। महर्षि बाल्मीकि अपने आश्रम के समीप, तमसा नदी के तट पर ,प्रकृतिके सुकुमार, सुंदरता का आनंद ले रहे थे। तमसा मंद गति से बह रही थी।वसंत के ऋतु में तरह -तरह के फूल खिले हुए थे, जो तमसा के आसपास के वातावरण को सुगंधित कर रहे थे। इसी नदी के तट पर कहीं से क्रौंच पक्षी का जोड़ा वहां आ पहुंचा। क्रौंच पक्षी का जोड़ा आपस में चोंच से चोंच मिलाते, कभी अपनी लंबी गर्दन, साथी के गर्दन से लपेट कर , तो कभी चोंच से,एक दूसरे का पीठ सहला कर खेल रहे थे। महर्षि बाल्मीकि को क्रौंच पक्षी का यह खेल बड़ा ही प्यारा लग रहा था। तभी अचानक नर क्रौच को कहीं से एक तीर आ लगा ।उस तीर को एक निषाद ने चलाया था। तीर के लगते ही क्रौंच पक्षी नदी में गिर कर छटपटाने लगा। क्रौचीं अपनी पति की यह दशा देखकर रोने लगी। अंत में नर क्रौंच तड़प कर मृत्यु को प्राप्त हो गया। उसके मरते ही क्रौची भी तड़प -तड़प कर पति के वियोग में मर गई। क्रौंच जोड़े की यह दशा देखकर महर्षि का ह्रदय करुणा और दुःख से भर उठा, और उनके मुंह से उपरोक्त श्लोक, शाप के रूप में प्रस्फूटित हो पड़ा। इस श्लोक का अर्थ यह है कि:--"हे निषाद! तू बहुत दिन तक प्रतिष्ठित ना रह सकेगा।क्योंकि तूने क्रौंच के जोड़े में से प्रेम मगन नर पक्षी को मार डाला है।"
इस इस श्राप को देने के बाद,महर्षि का मन बड़ा बेचैन हो गया। वह अपने आश्रम को लौट आए। और इस घटना का वर्णन करते हुए,अपने शिष्य भारद्वाज को कहा कि,--:" मुझे ऐसा श्राप नहीं देना चाहिए था"। भारद्वाज इस श्लोक को मन ही मन गुण- गुणाने लगे।सहसा वह बोल उठे कि,:--" गुरु देव! यह छंद तो गायन् योग्य है।" महर्षि का भी अब ध्यान इस ओर गया। और उन्होंने भी यह महसूस किया कि,उनके मुंह से निकला,यह छंद गाया भी जा सकता है।तभी उन्हें कुछ काल पूर्व, देवर्षि नारद की कही हुई बातें,याद आ गई । देवर्षि नारद ने उनसे, कुछ काल पूर्व ही, श्री रामचंद्र जी की कथा सुनाते हुए,रामायण महाकाव्य लिखने हेतु, प्रेरित किया था। नारद जी की बात स्मरण मेंआते ही, सहसा,उन्हें इस श्लोक का दूसरा अर्थ भी समझमें आ गया। इस श्लोक का दूसरा अर्थ यह है कि:--"हे माधव रामचंद्र! तू अनेक वर्षों तक राज करेगा,क्योंकि तुमने मंदोदरी--रावण जोड़े में से, काम पीड़ित रावण को मार डाला है।"इस श्राप रूपी छंद के दूसरे अर्थ को समझ में आने के बाद उनकी सारी चिंता मिट गई। तभी वहां प्रजापिता ब्रह्मा जी प्रकट हुए,उन्होंने कहा कि,:--" हे महर्षि! मेरे ही प्रेरणा से,यह श्लोक तुम्हारे मुंह से प्रस्फुटित हुआ है, अतः यह अब तुम, नारद के कहे के अनुसार रामायण महाकाव्य ग्रंथ को रचो। ब्रह्मा जी ने उन्हें आशीर्वाद दिया कि,:--" इस महाकाव्य की रचना करने से, उनको इस सृष्टि में आदि कवि के नाम से भी जाना जाएगा।"इस तरह से, महर्षि वाल्मीकि ने, इस श्लोक का सकारात्मक अर्थ ध्यान में रखकर रामायण महाकाव्य की रचना की।
Is Moral, mythological and historical stories से सीख ये मिलती है कि, हर बात के दो पहलू हैं,एक
नकारात्मक एवं दूसरा सकारात्मक। अगर बाल्मीकि अपने श्राप के नकारात्मक पक्ष या अर्थ को ही ध्यान में रखते,तो वो हमेशा आत्मग्लानि से भरे रहते एवं रामायण जैसे महाकाव्य की रचना नहीं कर पाते। पता हमें भी अपने जीवन में हमेशा सकारात्मक पक्ष की ओर ही ध्यान देना चाहिए। धन्यवाद।
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