परदुखकातरता
Technical mythology
Hi dosto, Mai moral, mythological and historical stories ke is aank me, AAP sabhi logo ka स्वागत करता हूं।
"जाके पैर न फटी विवाई,
वो क्या जाने पीर पराई।"
दोस्तों! इस दोहे को आपने पढ़ा होगा। मैं आज आपको,जो कहानी शेयर कर रहा हूं,वह इसी दोहे पर आधारित है। और यह सच्ची घटना पर आधारित है।यह बात एक विश्वविद्यालय की है, जहां के प्राध्यापक,अपने उपकुलपति से, है बहुत हैरान रहते थे। प्राध्यापक अपने विद्यार्थियों को जो भी दंड देते, उपकुलपति उसको माफ कर देते। विश्वविद्यालय के तमाम प्राध्यापक, यह सोचते रहते कि, ऐसे कैसे चलेगा? विद्यार्थी उनकी बात कैसे मानेंगे? साथ ही इससे विश्वविद्यालय में उच्चश्रृंखलता पैदा हो जाएगी। मगर बात उपकुलपति की थी, अतः उनकी हिम्मत नहीं होती थी, उनसे बात करने की। वे काफी दिनों तक,सारी बातें सहन करते रहे।मगर जब उन्होंने यह महसूस किया कि, उपकुलपति के व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं आएगा ,तब सभी प्राध्यापक मिलकर उनसे बात करने का विचार किया। फिर एक दिन, उन्होंने हिम्मत करके ,उनकेपास जाकर शिकायत की, कि,:--" ऐसा कैसे चलेगा? आप जो करते हैं,उसका प्रभाव संस्था पर अच्छा नहीं पड़ेगा। विद्यार्थी आपको छोड़कर, किसी भी अध्यापक की बात नहीं मानेंगे। और हम लोगों का काम करना मुश्किल हो जाएगा। उप कुलपति ने उनकी बातें ध्यान से सुने, फिर कुछ गंभीर होकर बोले:--ठीक कहते हैं,आप सभी, पर क्या आप मेरी विवशता के लिए मुझे क्षमा नहीं करेंगे?
' कैसी विवशता'? एक अध्यापक ने हिम्मत करके उनसे पूछा? उपकुलपति थोड़ी देर मौन रहे ,मानो वहां हो ही ना,वे फिर कुछ संभल कर बोले,:-"मैं अपने बचपन की एक बात को नहीं भूल पाता। जब मैं छोटा था, तो मेरे पिता नहीं रहे थे। उनकी असामयिक मृत्यु हो गई थी। मां तो थी,मगर घर में बेहद गरीबी थी। मैं स्कूल में पढ़ता था। उन दिनों फीस नाम मात्र की लगती थी। लेकिन वह भी समय पर नहीं जमा हो पाती थी। मां चाहती थी कि, मैं ढंग के कपड़े पहनकर स्कूल जाऊं। पर वो पैसे लाती कहां से। एक दिन घर में साबुन के लिए पैसे नहीं
थे। मैं मैले कपड़े पहनकर स्कूल चला गया, और शर्म के मारे क्लास के एक कोने में सिकुड़ कर बैठ गया। अध्यापक आए, उन्होंने क्लास पर एक निगाह डाली ।मुझे भी देखा, मुझ पर निगाह पड़ते ही, वह बोले,:- "खड़े हो जाओ।मैं क्या करता? खड़ा हो गया। वह बोले,:-" इतने गंदे कपड़े पहन कर, स्कूल आने में तुम्हें शर्म नहीं आती? मैं तुम पर 8 आना जुर्माना करता हूं।"
आठ आना! मेरे पैर के नीचे से जमीन खिसक गई,मुझे अपमान की इतनी चिंता ना थी, जितने कि, इस बात के लिए कि, जब घर में साबुन के लिए एक आना पैसा नहीं था। तो मेरी मां आठ आने कहां से लाएगी?
कहते- कहते उपकुलपति की आंखों में चमक आ गई। फिर कुछ सोचते हुए वह बोले,::--" तब से मुझे बराबर,इस बात का ध्यान रहता है कि, विद्यार्थी की पूरी परिस्थिति जाने बिना,यदि हम उसे दंड देते हैं, तो प्रायः उनके साथ अन्याय कर बैठते हैं। दूसरी बात यह कि ,जबतक आदमी स्वयं कष्ट नहीं पाता,वह दूसरे के कष्ट को नहीं समझ सकता। अध्यापक निरुत्तर हो गए,और उन्होंने उपकुलपति को यह आश्वासन दिया कि, अब से कभी भी विद्यार्थियो के परिस्थितियों को जाने बिना,वह उसे दंड नहीं देंगे। उप कुलपति के भी मन में भी, संतोष का भाव आ गया कि,उनके प्राध्यापक उनकी मंशा को समझ गए।
This nice Moral, mythological and historical story भारतीय राजनीति के महान पंडित, माननीय श्रीनिवास शास्त्री के बारे में है। उनके साथ बाल्यकाल में ऐसी ही घटना घटी थी, जिसके बाद किसी को भी दंड देते वक्त,उन्हें अपने बचपन के वह दुख भरे दिन याद आ जाते थे।सच कहते हैं कि, : : ::: ---- "जाके पैर न फटी बिबाई,
वो क्या जाने पीर- पराई"।
धन्यवाद आपका।
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