भार्याधींऩः शुभोदयंं़(लोगो का स्वभाव को खाने वाले राक्षस एवं एक ब्राह्मण की कथा) मार्कंडेय पुराण से
Technical mythology
Well come back friends, today moral, mythological and historical stories ke is aank me Maine आपको मार्कंडेय पुराण की एक कहानी शेयर कर रहा हूं।यह कहानी पत्नी के महत्व के बारे में हमारे वेद शास्त्र में एवं पुराणों में क्या वर्णित किया गया है ?यह बात बतलाता है।
" दु़ःशीलापि तथा भार्या पोषणीय नरेश्वरः।
भार्याधीन शुभोद़यंः।। "
राजा उत्तम, महाभागवत ध्रुव के छोटे भाई थे। इनकी माता का नाम सुरुचि था। इनकी पत्नी का नाम बहुला था।राजा उत्तम अपनी पत्नी को बहुत प्रेम करते थे। मगर संयोग से, इनकी पत्नी,उनके प्रेम को समझ न सकी। उसे राजा के प्रवचन भी कड़वे लगते थे। और अक्सर उनका तिरस्कार करती थी। अपनी बार-बार केअवहेलना से, राजा को अंततः क्रोध आ गया। और उन्होंने अपने सैनिकों को बुलवाकर, रानी को निर्जन वन में छोड़ आने का आदेश दे दिया। रानी निर्जन वन में छोड़ दी गई ।
एक दिन, उनके पास एक ब्राम्हण देवता आए। औरदुःखित हृदय से बोलें,:-" महाराज!मैं क्लेश में पड़ गया हूं। आप ही मेरे क्लेश को दूर कर सकते हैं। महाराज! मेरी पत्नी का किसी ने, 🌃 कल रात को, सोते समयअपहरण कर लिया है"। राजा ने पुछा,::--"हे ब्राम्हण!भार्या का किसने हरण किया है"? ब्राह्मण ने कहा,:-- "हे राजन! मुझे इसके बारे में कुछ नहीं पता।" इस पर राजा ने कहा,-"आप अपनी पत्नी का हुलिया ही बताइए। क्योंकि हुलिया पता चल जाने पर, किसी को ढुढने में आसानी होती है।" ब्राह्मण ने कहा,:--" मेरी पत्नी अत्यंत कुरूप है,वह बहुत लंबी है,किंतु उसकी भुजाएं छोटी है,वह स्वभाव की भी बड़ी ही कठोर है"। ऐसा भयानक हुलिया सुनकर, राजा उत्तम सहम गये। और उन्होंने कहा :--"हे ब्राम्हण! ऐसी बुरी लक्षणों वाली पत्नी के पीछे आप क्यों पड़े हैं? आप उसे छोड़ दें, मैं आपका विवाह, किसी दूसरी कन्या से करा दूंगा"।ब्राह्मण ने कहा,:--" हे राजन्! जब वह मेरी पत्नी बन चुकी है, तो मेरा कर्तव्य है, कि उसकी भली प्रकार से रक्षा करना,आप उसकी रक्षा में मेरी सहायता करें। पत्नी विलीन हो जाने के कारण प्रतिदिन, मेरे धर्म की हानि होती जा रही है । मेरा अभ्युदय भी रुक गया है। हर कार्य में, हमेशा कोई ना कोई रुकावट आ जा रही है"। ऐसी बात सुनकर महाराज उत्तम, उस ब्राह्मण की पत्नी को ढूंढते -ढूंढते जंगल में मार्कंडेय ऋषि के आश्रम में पहुंचे।राजा को आया देखकर शिष्यों ने कहा,:--" मुनिवर!राजा उत्तम आए हैं।राजा उत्तम, अर्घ के पात्र है या नहीं यह विचार कर मुझे आज्ञा दे। इसके बाद मुनि ने केवल संभाषण और आसन प्रदान करके राजा का सम्मान किया। मुनि ने कहा कि,:-- आपने अपनी विवाहिता पत्नी का त्याग कर दिया है, इससे एक बहुत बड़ा अधर्म हो गया है आपसे। इसी के कारण अब आप अर्घ के योग्य , नहीं रह गए हैं।उन्होंने कहा कि,:-"राजन्! देखो, उस ब्राम्हण की पत्नी भी, उसके लिए प्रतिकूल ही है। फिर भी, वह उसकी सुरक्षा के लिए प्रयास कर रहा है।"
महाराज उत्तम यह सुनकर लज्जित हुए। उन्होंने कहा कि,--"मुनिवर! मैं उस ब्राह्मण की पत्नी को खोजने के बाद, अपनी पत्नी का भी पता लगा लूंगा। इस पर महर्षि ने कहा कि:--"उस ब्राह्मण की पत्नी का हरण, बलक नामक एक राक्षस ने किया है।वह उत्पलावत् नामक वन में है"। राजा उस वन में गए ।उन्होंने देखा कि, ब्राह्मण ने जैसा हुलिया बताया था, वैसे ही कुरूप शरीर वाली, एक ब्राह्मणी, बेल तोड़ तोड़ कर खा रही है। राजा ने समीप जाकर उससे पूछा कि,:--" तुम इस वन में कैसे आ गई हो ?तुम उस सुशर्मा ब्राह्मण की पत्नी हो ना"? इस पर उस औरत ने कहा कि," हां मैं ही, उनकी पत्नी हूं।
यह दुष्ट राक्षस मुझे यहां हर लाया है।" इस पर राजा,उस राक्षस के पास पहुंच गए।राजा को देखते ही, उसने उनको प्रणाम किया। उसने कहा कि,:--"राजन्! आप मेरे घर पर आए हैं, यह मेरा सौभाग्य है, आप आज्ञा दीजिए,मैं आपकी क्या मदद करूं? इस पर राजा ने कहा कि,:--" तुम! इस ब्राह्मण की पत्नी को,क्यों हर लाए हो? मैं इसको ही, लाने आया हूं।" राक्षस ने कहा,:--" मैं आदमखोर राक्षस नहीं हूं। मैं लोगों के पुण्य का फल खाता हूं।या किसी के स्वभाव को खा जाता हूं। राक्षस ने आगे कहा कि इसका पति मंत्रज्ञ है। जब मैं किसी का पुण्य फल खाने जाता हूं,तो यह मंत्र पढ़कर, मेरा उच्चाटन कर देता है। तब मैं भूखा पेट लौट आता हूं। इसी कारण से,उस ब्राह्मण को धर्म से,हटाने के लिए, उसकी पत्नी को, हर लाया हूं। एक पति का धर्म है कि ,वह अपनी पत्नी की रक्षा करे। यह धर्म अब उस ब्राह्मण से नहीं हो रहा है। इसलिए अब उन यज्ञों में मेरा पेट भर जाया करता है"। राजा ने कहा,:-" हे निशाचर! अभी तुमने कहा कि ,मैं स्वभाव को खाता हूं। अतःअब तुम इस ब्राह्मणी के दुःस्वभाव को खा डालो, और इसे इसके पति के पास पहुंचा दो! अन्यथा मैं तुम्हें दंड दूंगा। राक्षस उत्तम के प्रभाव को जानता था।अतः, उसने राजा की आज्ञा का पालन किया, और उस औरत के खराब स्वभाव को खा कर, उसे उसके पति के पास पहुंचा दिया। राजा ने, उस निशाचर को, इस बात के लिए भी मना लिया कि, जब भी मैं तुम्हारा स्मरण करूं, तो तुम मेरे पास आ जाना। इसके बाद राजा, मुनि के पास पहुंचे, और उन्होंने, अपनी पत्नी के त्याग का जो पाप किया है, उसे दूर किस तरह से करूं? यह जानना चाहा। मुनि ने कहा कि:-"राजन! आप की पत्नी,जो आपके प्रति, प्रतिकूल व्यवहार रखती है, इसमें प्रमुख कारण ग्रह दोष का है। अतः इसका उपचार यह है कि, आप अपनी पत्नी से मिलकर धर्म युक्त काम कीजिए।राजन! ब्राह्मण,क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र कोई भी, अगर अपनी पत्नी को त्याग देता है,तो,वह कर्मानर्ह हो जाता है। उसके धर्म का लोप हो जाता है। अतः पत्नी के लिए जैसे पति का त्याग अनुचित है, वैसे ही पति के लिए पत्नी का त्याग भी अधर्म है।"राजा मुनि से आशीर्वाद ले, अपनी पत्नी को, वापस लाने का संकल्प कर,वहां से विदा लिया।
इस के बाद राजा अपने नगर में पहुंचे। वहां उस ब्राम्हण ने, उनको धन्यवाद देते हुए कहा::--" हे राजन!आपने मेरी पत्नी को देकर,मेरे धर्म की रक्षा की है, अतः मैं आपको कोटि-कोटि धन्यवाद देता हूं। और आपकी अभ्युदय की कामना करता हूं"।इस पर राजा ने कहा:--""हे ब्राम्हण! आप तो अपना धर्म पालन कर, कृतार्थ हो गए,किंतु मेरी पत्नी मेरे घर में नहीं है, अतः मैं बहुत धर्म संकट में हूं। महर्षि मार्कंडेय ने कहा है कि," मेरी पत्नी अभी जीवित है,"। किंतु ग्रह दोष से वह सदा मेरे प्रतिकूल ही रहेगी,जो मेरे दुख का कारण है। इसलिए आप कोई ऐसा उपाय करें जिससे, मेरी पत्नी मेरे अनुकूल रहे""। इस पर उस ब्राह्मण ने, राजा से, मित्रविंदा नामक यज्ञ कराया, जिससे रानी की बुद्धि भी, अपने पति के अनुकूल हो गई। इसके बाद राजा ने उस राक्षस का स्मरण किया। उस राक्षस ने,राजा की पत्नी को ढूंढ कर, राजा के सम्मुख उपस्थित कर दिया।इस तरह से राजा ने भी, पत्नी त्याग रूपी पाप से छुटकारा पाया।
इस तरह से Moral, mythological and historical story ka Moral यह है कि, जैसे पत्नी के लिए उसके पति का त्याग अनुचित है,वैसे ही पति के लिए पत्नी का त्याग भी अधर्म है। ऐसा नहीं करना चाहिए,दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। धन्यवाद।
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